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किवाड़

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*"किवाड़" ! *हमारी प्राचीन संस्कृति व संस्कार की पहचान* *क्या आपको पता है ?* *कि "किवाड़" की जो जोड़ी होती है !* *उसका एक पल्ला "पुरुष" और,* *दूसरा पल्ला "स्त्री" होती है।* *ये घर की चौखट से जुड़े-जड़े रहते हैं।* *हर आगत के स्वागत में खड़े रहते हैं।।* *खुद को ये घर का सदस्य मानते हैं।* *भीतर बाहर के हर रहस्य जानते हैं।।* *एक रात उनके बीच था संवाद।* *चोरों को लाख-लाख धन्यवाद।।* *वर्ना घर के लोग हमारी ,* *एक भी चलने नहीं देते।* *हम रात को आपस में मिल तो जाते हैं,* *हमें ये मिलने भी नहीं देते।।* *घर की चौखट के साथ हम जुड़े हैं,* *अगर जुड़े-जड़े नहीं होते।* *तो किसी दिन तेज आंधी-तूफान आता,* *तो तुम कहीं पड़ी होतीं,* *हम कहीं और पड़े होते।।* *चौखट से जो भी एकबार उखड़ा है।* *वो वापस कभी भी नहीं जुड़ा है।।* *इस घर में यह जो झरोखे,* *और खिड़कियाँ हैं।* *यह सब हमारे लड़के,* *और लड़कियाँ हैं।।* *तब ही तो,* *इन्हें बिल्कुल खुला छोड़ देते हैं।* *पूरे घर में जीवन रचा-बसा रहे,* *इसलिये ये आती-जाती हवा को,* *खेल ही खेल में ,* *घर की तरफ मोड़ देते हैं।।* *हम घर की सच्चाई छिपात

हमारे ज़माने में!

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 वैसे तो सोचकर देखो तो हमारी उम्र भी यह कहने की हो गई कि "हमारे जमाने में ऐसा होता था वैसा होता था" लेकिन सच में बहुत बढ़िया था जो भी था... खुद ही स्कूल जाना पड़ता था क्योंकि साइकिल बस आदि से भेजने की रीत नहीं थी, स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा बुरा होगा ऐसा हमारे मां-बाप कभी सोचते भी नहीं थे...  उनको किसी बात का डर भी नहीं होता था, * पास/नापास यही हमको मालूम था... % कितने परसेंट नंबर आए? से हमारा कभी भी संबंध ही नहीं था...  ट्यूशन लगाई है ऐसा बताने में भी शर्म आती थी क्योंकि हमको ढपोर शंख समझा जा सकता था... किताबों में पीपल के पत्ते, विद्या के पत्ते, मोर पंख रखकर हम होशियार हो सकते हैं ऐसी हमारी धारणाएं थी... * कपड़े की थैली में...बस्तों में..और बाद में एल्यूमीनियम की पेटियों में... किताब कॉपियां बेहतरीन तरीके से जमा कर रखने में हमें महारत हासिल थी.. ..  * हर साल जब नई क्लास का बस्ता जमाते थे उसके पहले किताब कापी के ऊपर रद्दी पेपर की जिल्द चढ़ाते थे और यह काम... एक वार्षिक उत्सव या त्योहार की तरह होता था.....  * साल खत्म होने के बाद किताबें बेचना और अगले साल की पुरानी किताबें