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सोचा कुछ मित्रों से साझा करूँ - पवन गुप्ता जी

    मेरे जैसा ‘ पढ़ा - लिखा ’ आदमी स्कूल जैसी कैद में 10-12 वर्ष रहने के बाद से ही , अपने को समझदार मानने लगता है। और अगर वह पढ़ने - लिखने में , स्कूल की debate वगैरह में हिस्सा लेता रहा और एक छोटी मोटी प्रसिद्धि उसे मिल जाय तो उसकी यह मान्यता और पक्की हो जाती है। और इसके बाद के वर्ष , जिसमे आगे की पढ़ाई जिसमे साथ साथ अपनी पहचान बनाने की कोशिश चलती रहती है , इस मान्यता को और घनीभूत करते चले जाते हैं।   यह मान्यता एक तरफ एक प्रकार का बाहरी आत्म - विश्वास देती है , जिसका   इस भौतिक संसार में लाभ भी मिलता है। पर कुछ लोगों को , शायद वे भाग्यशाली होते हैं , एक समय के बाद इस मान्यता के खोखलेपन का अहसाह होने लगता है।   यह पहचान ( identity) किस कदर हमारे दिमाग को लगभग बंद सा कर देती है , बने - बनाए ढर्रे से बाहर सोचने ही नहीं देती ; किस कदर हमे असुरक्षित और भयभीत कर देती है कि हम अपनी पहचान को बनाए रखें , टिकाये रखे , वह कहीं धूम