सोचा कुछ मित्रों से साझा करूँ - पवन गुप्ता जी
मेरे जैसा ‘पढ़ा-लिखा’ आदमी स्कूल जैसी कैद में 10-12 वर्ष रहने के बाद से ही, अपने को समझदार मानने लगता है। और अगर वह पढ़ने-लिखने में, स्कूल की debate वगैरह में हिस्सा लेता रहा और एक छोटी मोटी प्रसिद्धि उसे मिल जाय तो उसकी यह मान्यता और पक्की हो जाती है। और इसके बाद के वर्ष, जिसमे आगे की पढ़ाई जिसमे साथ साथ अपनी पहचान बनाने की कोशिश चलती रहती है, इस मान्यता को और घनीभूत करते चले जाते हैं।
यह मान्यता एक तरफ एक प्रकार का बाहरी आत्म-विश्वास देती है, जिसका इस भौतिक संसार में लाभ भी मिलता है। पर कुछ लोगों को, शायद वे भाग्यशाली होते हैं, एक समय के बाद इस मान्यता के खोखलेपन का अहसाह होने लगता है।
यह पहचान (identity) किस कदर हमारे दिमाग को लगभग बंद सा कर देती है, बने-बनाए ढर्रे से बाहर सोचने ही नहीं देती; किस कदर हमे असुरक्षित और भयभीत कर देती है कि हम अपनी पहचान को बनाए रखें, टिकाये रखे, वह कहीं धूमिल न हो जाय। और इसके साथ ही उस छवि को बनाए रखने में बारम्बार ‘अपने’ को justify करते रहते हैं – एक वकील की तरह। तठस्त हो कर स्वयं को जाँचना हम भूल ही जाते हैं। और यदि यदा-कदा वह होता भी है तो वह आत्म-ग्लानि की ओर ले जाता है, जिससे भी कुछ निकलता नहीं वह फिर वापस अपनी पहचान को बनाए रखने की प्रवृति की ओर ही अंततः धकेलता है। जैसे कि यदि पहचान थोड़ी गड्डमड्ड हुई तो अपना अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं है। यह सिर्फ एक भ्रम है।
हम आखिर तो सिर्फ एक product हैं अपने विगत का – इस जन्म और उसके पहले के पूर्व जन्मों का। इसमे ‘हमारा’ करके है ही क्या? मेरे विचार? मेरे बुद्धि? मेरे शक्ल-सूरत? फर्क शायद सिर्फ इतना है कि यह जो हमे मिला है उसे हम अपना मानकर, उससे चिपक कर उस पहचान को ढो रहे हैं
या
इस प्रक्रिया को समझ कर इस ‘मेरे’ की जकड़न को जरा सा ही सही, पर ढीला कर रहे हैं ताकि ‘कुछ और’ भी दिखाई दे सके इसकी space बना रहे हैं।
छोटी छोटी बातें समझने में, जो बहुत पहले समझ जानी थीं, संभवतः अपनी परंपरा से जुड़े होते तो, इतना समय लगा।
जैसे:
यह कि यह हम जब अपने को या दूसरों को ‘कुछ’ समझाना चाहते हैं तो यह ‘कुछ’ है क्या? क्या यह ‘कुछ’ काल्पनिक होता है – मेरी कल्पना? या यह ‘कुछ’ कोई वास्तविकता होती है? यदि कोरी कल्पना है तो उसे समझाया कैसे जा सकता है? वह तो बस है। उसकी संप्रेषणा कैसे होगी, बगैर किसी common ground के, किसी common basis के? समझना तो वास्तविकता का ही हो सकता है। और वास्तविकता तो मेरी या किसी और की हो ही नहीं सकती। वास्तविकता तो सार्वजनिन ही हो सकती है, अन्यथा वह कल्पना, विचार, जानकारी इत्यादि कुछ हो सकता है, वास्तविकता नहीं।
वास्तविकता यदि सार्वजनिन है तो फिर उसको समझने का मतलब उसका अर्थ समझना ही हो सकता है। और यही अर्थ तो हम समझने का, समझाने का, संप्रेषित करने का प्रयास करते हैं जिसमे शब्दों की आवश्यकता होती है। तो सिलसिला वास्तविकता, उसके बाद अर्थ और उसके बाद शब्द – यह क्रम बनता है।
पर मेरी पढ़ाई लिखाई ने तो मुझे यह भ्रम दे दिया कि शब्द के अर्थ होते हैं और वहीं पर गाड़ी रुक जाती है। यह नहीं बताया कि शब्द के अर्थ वास्तविकता में होते हैं, सार्वजनिन होते हैं। इसका परिणाम मेरे में यह हुआ कि मैंने जैसे ही शब्द को अर्थ देखने की अटकलबाजी की (जैसे एक छोटा बच्चा करता है) और लगा कि इससे काम चल जाता है, वैसे ही मैंने ‘मान’ लिया कि मैं अर्थ ‘जान’ गया हूँ। माने हुए अर्थ को वास्तविकता की कसौटी पर परखने की ज़रूरत ही नहीं समझी। वह भी कोई दिशा है, जहां जाना आवश्यक है – समझने के लिए, कभी किसी ने बताया ही नहीं।
इस भ्रम का आधुनिकता और आधुनिक पढ़ाई - लिखाई से गहरा संबंध है। यह अर्थ, वास्तविकता का अर्थ जो सार्वजनिन है, absolute है। यह सनातन है – सार्वजनिन और सार्वकालिक। इस वास्तविकता को स्वीकारे बिना, पचाये बगैर विचार? विचारों की बैठक भी तो वास्तविकता और उसके अर्थों में ही होनी होगी अन्यथा कल्पना का बेलगाम घोड़ा तो कहीं भी दौड़ सकता है।
सुनना और सुनना। पढ़ना और पढ़ना। सुन कर, पढ़ कर, तुरंत माने हुए अर्थों से निष्कर्ष निकालना बगैर शब्दों के अर्थ और शब्दों से बने वाक्यों से अर्थ निकाल कर बगैर उन्हे वास्तविकता की कसौटी पर परखे हुए, कितना सार्थक है, सोचनीय है। और यदि इस प्रक्रिया में हमारी पहचान का भी सवाल जुड़ जाता है तो फिर तो कहने ही क्या? ‘करेला और नीम चढ़ा’ वाली बात।
इसलिए सुनने और पढ़ने के बाद उस पर मनन करना (माने हुए अर्थों को वास्तविकता की कसौटी पर परखना) कितना महत्व रखता है समझ आता है। यह मनन, यह gap। पहचान किस तरह आड़े आती है कुछ कुछ दिखाई देने लगा है।
जीवन में भी ऐसा महसूस होने लगा है। इस gap की, मनन की ज़रूरत होने लगी है। पढ़ने से अलग।
सोचा कुछ मित्रों से साझा करूँ।
पवन
मसूरी
दिसंबर 31, 2023
चतुर्थी कृष्ण पक्ष, पौष 2080
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