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"जागे हुए को मैं क्या जगाऊँ?"

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"जागे हुए को मैं क्या जगाऊँ?" बचपन में सुबह हम जब बिस्तर से नहीं उठते थे ऊंघते रहते थे तो माँ एक वाक्य कहती थी कि "जागे हुए को मैं क्या जगाऊँ?" आज इस समाज पर यह बात सटीक बैठती है जो अधिकतर अपनी जीभ के स्वाद का गुलाम बन, जान-बूझकर अनजान बन वही खा रहा है जिसने आपके घर के सदस्य को अस्पताल का सदस्य (मरीज़) बनाया क्योंकि ऐसे अस्पताल में आने वाले लोगो को सोशल मीडिया के युग में सही गलत का पता न हो वह मैं मान ही नहीं सकता। आने वाली पीढ़ियां हमारे आज का आचरण से निर्मित होती है इस बात को ध्यान में रख यह पोस्ट पढ़ें किसी मित्र के कार्य हेतु एक तथाकथित चमक दमक होटल जैस हो(स्पी)टल में जाना हुआ मरीज़ो से भरा और परन्तु इलाज से खाली था. लाइन लगाकर लोग पैसा जमा करने की होड़ में थे और समय उनके पास भरपूर था।  यह मेरा मानना है की पैसा और समय सबके पास होता है और इसे लूटने की कला आधुनिक अस्पतालों ने बखूबी सीख लिया है। यह जो उदहारण मैं दे रहा हूँ उस से पुनः यह बात साबित हो जाती है की जिस चिकित्सा व्यवस्था वालो को इतना भी भान नहीं है की अस्पताल में स्वस्थ भोजन का क्या अर्थ य