महिलाओ की बराबरी पुरुषो से क्यों नहीं है आवश्यक?

महिलाओ की बराबरी पुरुषो से क्यों नहीं है आवश्यक?






चौंकिए मत! 

 मैंने यह प्रश्न बहुत सोच समझ कर और महिलाओ के हित में पुछा है

Feminist अर्थात नारीवादी जो बात बात पर उछल पड़ते है उनको भी थोडा दिमाग लगाना होगा 

पिछले 50 वर्षो से इस विचार की भूमिका तैयार की गयी और पिछले 25 वर्षो से मूरत रूप दिया गया 

भजन, भोजन धन और नारी पर्दे में ही अधिक शोभा पाते है अब इसका अर्थ यह मत समझ लेना की उन्हें घूंघट में ही रहना चाहिए इसका वास्तविक अर्थ है कि इन तीनो का आदर-सम्मान और मर्यादा घर में रहने से ही बढती है।  

ठीक वैसे ही जैसे हीरा तिजोरी में संभाल कर रखा जाता है जिस से उसका मूल्य कम न हो। लेकिन लोहे को बाहर हो पड़े रहने दिया जाता है क्योंकि उसके मूल्य में कोई अंतर नही पड़ता। बाकी आप स्वयं समझदार हो।

भगवान द्वारा जब इस संसार में स्त्री पुरूष को भेजा जाता है तब उसके जीवन में चार महत्वपूर्ण कार्य होते है जिन्हे की परदे के अंदर अर्थात् पूर्ण सम्मान व आदर पूर्वक किया जाए तभी उसके सार्थक परिणाम प्राप्त होते है। 

इन चार कार्यो में प्रथम कार्य भजन जिसे की गौमुख माला के अंदर किया जाए, द्वितीय भोजन जिसे की रसोईघर में बैठकर किया जाए तभी यह रूचिकर व स्वास्थ्य वर्धक होता है, तृतीय धन जिसे की सुरक्षित रखकर उचित एवं उपयोगी व्यय किया जाए तभी इसकी सार्थकता पूर्ण होती है 

एवं नारी जो की इस संसार की शक्ति रचयिता है जब परदे के अंदर लोक लज्जा के साथ घर परिवार का सम्मान करती हुई रहती है तभी इन चारों चीजों को उचित प्रतिफल एवं उपयोग प्राप्त होता है।

विवाह से पहले लड़की की ननसार (नानी के घर) की जानकारी क्यों आवश्यक है?)

 परन्तु आज यह सब उल्टा हो गया है और सब खुले में हो रहा है

क्या कहना चाहता  हूँ मैं? 

तो अब एक महिला और मेरे बीच हुए वार्तालाप को ध्यान से पढ़िए जो मुझे एक सप्ताह लगा इस रूप में आपके समक्ष लाने में

(चेतावनी : महिला हो या पुरुष सभी कुतर्कियो और अभद्र भाषा लिखने वालो की टिपण्णी बिना चेतावनी हटा दी जायेगी इसीलिए जो भी कहना हो मर्यादा में रहकर और विवेकपूर्ण तर्क के साथ और अगर नहीं तो इस पोस्ट को अनदेखा करना ही बेहतर होगा)

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महिला: महिलाओ को पुरुषो के सामान अधिकार देने में आपको क्या परेशानी है?

मैं : बहुत परेशानी है हमे क्योंकि महिलाओ को पुरुषो के समान बनाने का एक भयानक षड्यंत्र चलाया जा रहा है

जिस महिला का स्थान भारत में पूजनीय होता था और यहाँ तक की कह दिया गया कि

जहाँ नारी का वास है वह देवताओ का आशीर्वाद बना रहता है 

अर्थात नारी का स्थान पुरुषो से नीचे नहीं था अपितु बहुत ऊँचा था और वह नारी प्रगति के नाम पर, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर, फिल्म और टीवी में पैसा लेकर कुछ भी नाटक करने वाले लोगो को अपना आदर्श मानकर, स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने की दौड़ में परिवार से दूर होकर स्वयं को स्वतंत्र मानकर अपने आप को पुरुष के स्तर तक लाकर क्या ठीक कर रही है?

पुरुषो की तरह बात करना, आचरण करना और वेश भूषा पुरुषो जैसी पहनना तो पतन का प्रतीक है 

व्यसनों में फसकर धुम्रपान, शराब, अभद्र शब्दों का प्रयोग करना, आदि सब करके वह प्रकृति की बनाई नारी जाति को जो बायोलॉजिकली पुरुष से भिन्न है और भिन्न होना का अर्थ कमजोर या नीचा होना बिलकुल नहीं है। अगर दोनो के आचरण में प्रकृति के द्वारा दिए गए स्वाभाविक गुणों के अनुसार आचरण नही होगा तो यह तो बड़ी गड़बड़ है। 

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प्रश्न: तो क्या यह सब पुरुषो को करने की छूट है लेकिन महिलाओ को नहीं यह भेदभाव् तो  ठीक नहीं? सभी नियम महिलाओ के लिए ही क्यों?

उत्तर: यह तो किसी ने नहीं कहा की पुरुषो को छूट है यह सब व्यसन और बुरी आदत सभी के लिए खराब है 

हमारे समाज में अकेले पुरुषो का सम्मान गृहस्थ पुरुष से कम होता है इसीलिए प्राचीन काल में सभी महर्षि गृहस्थ होते थे 

एक नारी ही पुरुष को पूरा करती है 

अपने संस्कारो से और सृष्टि की रचना करने की शक्ति के कारण उसे घर की लक्ष्मी कहा गया है अर्थात देवी का रूप

देवी अगर पुरुष के अवगुणों को दूर न करें और स्वयं अवगुण धारण कर ले तो वह पूज्य नहीं रहती

स्वयं को ऊँचा समझ कर एक आदर्श स्थापित करना ही स्त्री का परम कर्तव्य रहा है इसीलिए नियम महिलाओ को पालन करना होगा 

अगर नारी में सद्गुण नहीं होंगे तो आने वाली संतान जिसपर माँ का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है धीरे धीरे पीढ़ी दर पीढ़ी कमज़ोर होती जाएगी और हजारो वर्षो से महापुरुषों को जन्म देती नारी अपने अवगुणों के कारण विनाशकारी पीढ़ी को जन्म देगी जो सृष्टि पर संकट ला देगी 

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प्रश्न: आपके इन तर्कों के कारण महिलाये भारत में हमेशा से शोषित और दबा कर रखी गयी है

उत्तर: यह केवल एक भ्रम है जो फिल्मो द्वारा और मीडिया द्वारा प्रचरित किया गया है भारत में कुछ जान बूझकर उछाले गए मामले छोड़ दिए जाये तो हजारो सालो से महिला को देवतुल्य स्थान भारत में दिया गया है वास्तविक नारी का शोषण तो यूरोप में होता आया है जिस संस्कृति का अनुसरण आज हमारे यहाँ की स्त्रियों कर स्वयं को ऊँचा मानती है। वहां तो महिलाओं को डायन साबित कर बीच चौराहे जिंदा जला देने को खूब मान्यता प्राप्त थी। जिसे witch hunting कहा जाता था। यूरोप में तो वोट या गवाही देने तक का भी अधिकार नही था। 

यूरोप के तथाकथित महान दार्शनिको के अनुसार स्त्री का महत्त्व घर में पड़े फर्नीचर से अधिक कुछ नहीं था वहां नारी को भोग की वस्तु के अलावा कुछ नहीं समझा गया किसी अदालत में उनकी गवाही को पुरुष से कम महत्त्व दिया जाता है अगर आपको विश्वाश नहीं होता तो स्वयं इसको इन्टरनेट पर ढूंढ सकते है 

वहीं भारत में तो मां के नाम से परिचय दिया जाता था जैसे कुंती पुत्र अर्जुन, यशोदा नंदन, देवकी नंदन, गांधारी पुत्र आदि आदि। तो अब आप बताओ भारत में महिलाओं को ने देशों की तुलना में अधिक सम्मान प्राप्त था या नहीं?

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प्रश्न: तो आपके अनुसार महिलाओ को पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर होकर अपने पैरो पर खड़ा होकर मॉडर्न नहीं बनना चाहिए?

उत्तर: जिसे आप मॉडर्न के रही हो वो तो वास्तव में पश्चिमीकरण है। और आपके कहने का अर्थ है की 21वी सदी की तथाकथित मॉडर्न नारी से पहले की नारी आत्मनिर्भर नहीं थी अपने पैरो पर खड़ी नहीं थी?

आपके इस प्रश्न को बल देते हुए कहना चाहूँगा की अगर मैं 1980 तक की भी बात करू तो हमारी गाँव की महिलाये शहर की पढ़ी लिखी महिलाओ से कही अधिक कुशल थी और अपने पैरो पर नहीं बल्कि पूरे कुटुंब को अपने पैरो पर खड़ा कर सकने का सामर्थ्य रखती थी

इसका उदहारण देता हूँ :

पहले और आज भी गाँव में रात के 12 बजे भी अगर 10 मेहमान आ जाये तो घर की महिला उनके लिए रसोई में बिना आधुनिक सुविधा के यंत्रो के बिना आलस और प्रेम भाव से भोजन बना कर आतिथ्य करने की क्षमता रखती थी

यह कही सुनी बात नहीं है 1988 में दिल्ली में आने से पहले अलवर, राजस्थान के गाँव में हमारा मकान बन रहा था तो वहां मकान बनाने वाले कारीगर जो संख्या में 4-5 होते थे और जिनकी खुराक खूब होती थी उनके लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन 6 महीने तक मेरी माँ स्वयं बनाती थी ।

वो भी तक जब आटा चक्की पर पीसना पड़ता था, चूल्हे लकड़ी या गोबर से जलते थे

लेकिन अगर शहर में 1 मेहमान भी घर में आ जाये और लगातार 2-3 दिन भी उसका आतिथ्य करना पड़ जाये तो मुसीबत टूट पड़ती है 

एक और उदहारण देता हूँ:

आंध्र के गाँव में एक किसान खेत में रहता था और उसकी पत्नी को बच्चा होने वाला था एक दिन सुबह वो बाहर बैठा रो रहा था तो खेत में काम करने जा रही कुछ महिलाए उसे रोता देख पूछती है की क्या हुआ तो वो कहता है की पत्नी को बच्चा होने वाला है और घर पर कोई नहीं है 

वो महिलाएं अपना काम छोड़कर बच्चा करवाने की तयारी में लग जाती है कोई पानी गर्म करने लगती है तो कोई किसी और काम में 

और कुछ ही देर में बच्चा हो जाता है फिर एक बुज़ुर्ग महिला वहां रूककर देसी तरीके से उसकी देखभाल करती है और वो किसान अपने घर से किसी बड़े को लेकर आ जाता है 

इस उदहारण से क्या साबित होता है बिना डिग्री बिना भय कितना सामर्थ्य था हमारी महिलाओ में और कितनी सहजता से ऐसी परिस्थिति को संभाल कर उन्होने कार्य किया। जब तक महिलाओं ने घर संभाले गांव में कोई भूखा नही सोया। 

यह महिलाये साक्षर नहीं शिक्षित है

वही आज अगर शहर की साक्षर महिलाओ के सामने ऐसी परिस्थिति आ जाये तो वो कुछ नहीं कर पायेगी और मैं कहूँगा की आज से 20-25 वर्ष बाद तो हमारी महिलाओ का रहा सहा ज्ञान भी विलुप्त होने वाला है। शहर में तो तुलसी या दुर्वा घास तक को पहचानना कठिन है।

क्योंकि बिना दिशा की साक्षरता के कारण वो पैसे कमाने के लिए पढ-लिख कर और केवल अपनी अनावश्यक जीवनशैली को चलने के लिए आत्मनिर्भर बन ऐसी कला सीख रही है जिसमे उनको सब कुछ रेडीमेड मिल जाये

जैसे आजकल बनी बनायीं रोटियां डिब्बाबंद होकर बिक रही है अब अगर यह आत्मनिर्भरता और शिक्षा है तो व्यर्थ है 

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प्रश्न : बचपन पिता की, जवानी पति के और बुढ़ापा बच्चो की गुलामी में गुज़र जाता है फिर तो महिला का अपना कोई जीवन नहीं? 

उत्तर: महिला का अपना जीवन परिवार और समाज के हित में समर्पित है क्योंकि वह सृष्टि की जननी है और उसमे जो स्वार्थवश केवल अपने बारे में सोचने की जो सोच पैदा कर दी गयी है वह विनाश का कारण है 

आज जिस नारी के जीवन में परिवार और संतान का सुख नहीं है वो ऊपर से कितनी ही सफल और प्रसन्न होने का नाटक कर ले लेकिन जब तक विवाह के बाद एक अच्छा जीवनसाथी और संतान का सुख नहीं मिल जाता जीवन की सब सफलताये धरी की धरी रह जाती है।

अमेरिका यूरोप में 45 या 50 वर्ष की अकेली बिना परिवार वाली तथाकथित स्वतंत्र महिला बार में बैठकर अपने अकेलेपन को दूर करने को आज एक रात का साथी ढूंढती है  जबकि वास्तव में उसे घर में मर्यादा के साथ अपने  परिवार के साथ होना चाहिए था। अब इन दोनो में से एक महिला के लिए कौन सी स्थिति अधिक सम्मानजनक है? 

अर्थात जिस भोग विलासिता के जीवन और चकाचौंध में आज के स्त्री और पुरुषो को फंसा दिया गया है उस सब से मन भरने के बात परिवार और संतान ही याद आती है क्योंकि सृष्टि का वही नियम है। 

लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और फिर IVF और कृत्रिम गर्भाधान की और भागना पड़ता है लेकिन उन उपायों से होने वाली संतान प्राकृतिक रूप से होने वाली संतानों के अपेक्षा हर प्रकार से कम ही सिद्ध होती है 

जो नारी अनंत काल से खूंटे की तरह पूरे घर को बाँध कर, संभाल कर चलती है अगर आप उसे केवल स्वयं के बारे में सोचने वाली एक आत्मनिर्भर व्यक्ति बना देंगे तो क्या यह समाज जो इतने हज़ार वर्षो से कुटुंब के बल पर टिका रहा वो बिखर कर टुकड़े टुकड़े नहीं हो जायेगा?

और मुझे दुःख है कि इसका आरम्भ हो भी गया है और हर तीसरे घर में पति-पत्नी के रिश्ते टूटने की कगार पर है या उसमे विश्वास समाप्त हो गया है। 

जिस देश में एक नाई तक इतना समझदार था कि दो घरों रिश्ते जोड़ देता था बिना एक दूसरे को देखे शादी हो जाती थी और कभी तलाक या divorce नही हुए। न इस जैसा शब्द हिंदी या संस्कृत में कभी गढ़ा ही गया। 

लेकिन अब वही बच्चे अपने माता पिता तक तो को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार नही देते। लेकिन हर घर में टूटन है।

और आपके प्रश्न के दूसरे हिस्से का उत्तर देना चाहूँगा की हजारो सालो से हमारे महान महर्षियो ने समाज के लिए एक व्यवस्था खड़ी की थी जिसमे परिवार और कुटुंब का प्रारूप बनाया गया और उसमे सबकी व्यवस्था बनायीं गयी जिसके केंद्र में देव तुल्य नारी का कल्याण करना ही था। उसके शील और स्वास्थ्य की रक्षा करना ही था। 

उसी व्यवस्था में यह भी निश्चित किया गया की नारी का समाज में सम्मान और आदर कैसे बना रहे, जिस से वह अपने कर्तव्य पथ से न भटके और अनंत काल तक अच्छी एवं गुणवान संतान उत्पन्न हो और इसकी अधिक ज़िम्मेदारी नारी पर है तो उसके जीवन के हर पड़ाव पर एक संरक्षक को नियुक्त किया जाना आवश्यक था


पुत्री के रूप में: 


-  एक पिता का सबसे बड़ा धर्म है अपनी पुत्री का संरक्षण और पालन-पोषण कर संस्कारवान और गुणवान कन्या के रूप में एक योग्य वर ढूंढ कर विवाह कर देना लेकिन हमारा दुर्भाग्य की जिस देश में पिता अपनी पुत्री के रोज़ प्रातः चरण छुकर नमन करते है वहां की बेटियों को यह लगने लगा की पिता उनकी स्वतंत्रता में बाधा है और माता पिता भी आधुनिकता की दौड़ में बेटियों को सुसंस्कारों के स्थान पर अनावश्यक एवं विनाशकारी पतनकारक स्वतंत्रता दे बैठे। जिसमे रसाई एक unproductive स्थान के रूप में बताया गया।


अब नौकरी और उच्च शिक्षा के लिए घर से दूर अकेले रहने वाले लड़का या लड़की एक कुटुंब बनाकर कभी नहीं रहे सकते जहाँ माता पिता या सास ससुर की उपस्तिथि को वो बर्दाश्त कर सके 


प्राइवेसी नाम का शब्द जो अमेरिका से जो सीख लिया है।


पत्नी के रूप में :

- एक पिता योग्य वर को अपनी कन्यादान कर गंगा नहाता था अब सात वचन जो विवाह के समय लिए जाते है उनको अगर याद करें और अगर पालन करें तो किसी भी दम्पति के जीवन में कोई क्लेश न हो


एक कन्या 7 वचन लेकर ही सात फेरे पूरे करती है और जीवन भर अपनी रक्षा का वचन लेती है तो इसमें गुलामी वाली कोई बात नहीं 

अपने पुत्री के वर को हमारे यहाँ बहुत ऊँचा माना जाता है क्योंकि एक पिता अपने घर की इज्ज़त उसे सौंपता है 

और जब एक स्त्री बहू  बनकर किसी घर में जाती है तो वहां उसका अधिकार उस घर की पुत्री से अधिक हो जाता है क्योंकि एक सास अपने बाद अपनी घर की ज़िम्मेदारी अपनी बेटी को नहीं बहू को सोंप कर जाती है क्योंकि बेटी प्यार है परन्तु बहू अधिकार है।

अब परेशानी यहाँ है की सातो वचन तो दिखावे के लिए ले और दे दिए जाते है 

अब पत्नी या पति फिल्मो और अन्य प्रकार के मीडिया में देख कर और प्रचारित नकली छवि को वास्तविक समझ अपने होने वाले पति और पत्नी की एक छवि बना लेता है विवाह के लिए वैसे ही एक तथाकथित Perfect जीवनसाथी की आशा मन में पाल लेता है।

 परन्तु जब वास्तविक वर या वधु उस छवि के आस पास नहीं होते तो निराश होकर जीवन को बोझ समझ ढोते है

परन्तु अगर सातो वचन निभा कर कोई भी दम्पति चले तो प्रेम और आदर की उसे जीवन भर कमी नहीं रह सकती

अगर पति आर्थिक रूप से कमज़ोर है तो पिता और माँ के दिए संस्कारो के कारण लक्ष्मी का स्वरुप बन कन्या किसी भी घर को मज़बूत बना सकती है। लेकिन अमीर परिवार में शादी तो कर दी परंतु उसके बाद कोई आर्थिक संकट आ जाए तो क्या बहु इस योग्य हैं कि वो घर को पुनः समृद्ध बना सके।

अगर संस्कार सही मिले है तो महिला अपने जीवनसाथी के साथ एक सुखी जीवन का निर्वाह करेगी न की स्वयं को गुलाम या कामवाली समझकर। 


माँ के रूप में:

अपनी संतान को जन्म देकर अच्छा संस्कार हर माँ देना चाहती है और अगर वही संतान बुढ़ापे में मातापिता की देखभाल करें और उनकी भलाई के लिए उनको कोई निर्देश दे तो उसे गुलामी समझना माँ की भूल है 

क्योंकि विडम्बना है कि 

माँ अपने बेटे से श्रवण कुमार होने की आशा करती है 

वह अपने पति को श्रवण कुमार बनते नहीं देखना चाहती।

सुनने में यह बात कड़वी परंतु सत्य है जिस स्त्री को पिता, पति और पुत्र का साथ नही मिलता वह एक आदर्श समाज की आदर्श नही बन पाती और व्यभिचार को बढ़ावा देती है। 

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प्रश्न: तो आप चाहते है की महिला पढ़े लिखे नहीं, नौकरी ना करें और घर में बैठी रहे?

उत्तर: मेरी इस बात से बहुत सी प्रगतिशील महिलाओ को पीड़ा पहुचेगी लेकिन मैं उनको भी ठन्डे दिमाग से सोचने का निवेदन करूँगा

जो बेटी पैदा होने पर लक्ष्मी का रूप और विवाह होने पर गृह लक्ष्मी या बहू रानी कहलाती है वह महिला नौकर बन कहीं नौकरी करें उस से नारी की शोभा घटती है या बढ़ती है। और घर में बैठना नहीं है घर संभालना है। घर संभलेगा तो रसोई संभलेगी,  परिवार संभलेगा और स्वास्थ्य संभलेगा। स्वास्थ्य संभलेगा तो अकेला पति सब कार्य कर सकेगा। 

और यह नौकरी भी तो अंग्रेजो के समय से ही अधिक प्रचलन में आई जब उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को बर्बाद किया। उस से पहले तो पूरा परिवार किसानी, लोहारी, कुम्हारी आदि कामों में लगता था। 

और अगर पढना लिखना है तो तो वेद-पुराण, शास्त्र पढ़े और संतो की वाणी पढ़े। जिनको सुनकर स्त्री के गर्भ से महापुरुषों ने जन्म लिया।

अंग्रेजी पढ़ लिख कर विदेशी कंपनियों का कचरा खरीदने का ही काम होने वाला है। उनकी भाषा में लिखे गए atrocity literature द्वारा अपनी कुदृष्टि से की गई भारत के परिभाषा पढ़कर हम स्वयं को नीचा समझने लगते है।

अंग्रेजी केवल एक भाषा है उसे उसी भावना से सीखे उसे भगवान् न बनाये।

दिल्ली में तो मैंने देखा जब से मेट्रो शुरू हुई तो कई बेटियां और महिलाएं गीले और खुले बालों में ही नौकरी करने निकलना पड़ता है। जिसके अपने कई नुक्सान है।  

इस शेर से समझ जाना जिसने मेरे जीवन को एक दिशा दी 

"ज़िन्दगी ज़रुरतो के हिसाब से जिओ ख्वाहिशो के हिसाब से नहीं

क्योंकि ज़रूरतें फकीरों की भी पूरी हो जाती है और ख्वाहिशें बादशाहों की भी अधूरी रह जाती है "

अर्थात यदि आज की सामाजिक कुवाव्यस्था के कारण कुछ अपवादों को छोड़ दे तो घर की महिला को नौकरी अपनी और परिवार की इक्छाओ की पूर्ती के लिए करनी पड़ती है और शहरों में ज़रूरतें भी इतनी बढ़ गयी है की हर इक्छा भी ज़रूरत ही लगती है ।

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प्रश्न: आपने खुले बालो की बात क्यों कही? अब इसमें क्या परेशानी है?

प्रश्न: तो फिर क्या आप सती-प्रथा और बाल विवाह को भी समर्थन देते है?

प्रश्न: मासिक धर्म के समय महिलाओ के साथ अछूत सा व्यवहार क्यों?

प्रश्न: कुछ मंदिरों में महिलाओ के प्रवेश पर रोक क्यों?

प्रश्न: सुहाग की निशानी जैसे मंगल सूत्र और सिन्दूर हम ही क्यों लगाये पुरुष क्यों नहीं?

आदि कई अन्य प्रश्न भाग 2 में

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एक दृष्टांत

एक संत की कथा में एक बालिका खड़ी हो गई।

चेहरे पर झलकता आक्रोश...

संत ने पूछा - बोलो बेटी क्या बात है?

बालिका ने कहा- महाराज हमारे समाज में लड़कों को हर प्रकार की आजादी होती है।

वह कुछ भी करे, कहीं भी जाए उस पर कोई खास टोका टाकी नहीं होती।

इसके विपरीत लड़कियों को बात बात पर टोका जाता है।

यह मत करो, यहाँ मत जाओ, घर जल्दी आ जाओ आदि।

संत मुस्कुराए और कहा...

बेटी तुमने कभी लोहे की दुकान के बाहर पड़े लोहे के गार्डर देखे हैं?

ये गार्डर सर्दी, गर्मी, बरसात, रात दिन इसी प्रकार पड़े रहते हैं।

इसके बावजूद इनका कुछ नहीं बिगड़ता और इनकी कीमत पर भी कोई अन्तर नहीं पड़ता।

लड़कों के लिए कुछ इसी प्रकार की सोच है समाज में।

अब तुम चलो एक ज्वेलरी शॉप में।

एक बड़ी तिजोरी, उसमें एक छोटी तिजोरी।

उसमें रखी छोटी सुन्दर सी डिब्बी में रेशम पर नज़ाकत से रखा चमचमाता हीरा।

क्योंकि जौहरी जानता है कि अगर हीरे में जरा भी खरोंच आ गई तो उसकी कोई कीमत नहीं रहेगी।

समाज में बेटियों की अहमियत भी कुछ इसी प्रकार की है।

पूरे घर को रोशन करती झिलमिलाते हीरे की तरह।

जरा सी खरोंच से उसके और उसके परिवार के पास कुछ नहीं बचता।

बस यही अन्तर है लड़कियों और लड़कों में।

पूरी सभा में चुप्पी छा गई।

उस बेटी के साथ पूरी सभा की आँखों में छाई नमी साफ-साफ बता रही थी लोहे और हीरे में फर्क।।।

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परिवारों को टूटने से बचाने का प्रयास करता

- वीरेंद्र

VirenderSingh.in



Comments

  1. पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
    रक्षन्ति स्थाविरे पुत्राः न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति

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  2. बहुत ही सुन्दर

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  3. Bahut accha laga

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  4. बहुत सुंदर

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  5. बहुत सुंदर

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  6. Senur ka matlab nahi samjhaya aapne

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  7. Bahut hi Gyan vardhak lekh virendra g dhanyvad

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  8. कृप्या इस बिंदु पर और भी लेख लिखे

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  9. बहुत सुंदर
    सराहनीय

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  10. Guru ji tussi mahan ho aapke charo m koti koti Naman

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  11. बहुत सुंदर, वीरेंद्र जी आपको नमन

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  12. आपके विचार उच्चतम है

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  13. बहुत खूब वीरेंद्र भाई,स्त्री समाज को तथा- कथित आत्मनिर्भरता और तथा-कथित आजादी के भ्रमजाल से निकालने के लिये इतना तार्किक विश्लेषण कोई राजीववादी ही कर सकता है।वीरेंद्र भाई इसके लिये आपको हृदय की अनन्त गहराई से बहुत-बहुत धन्यवाद।

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  14. भाई जी! बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख है। नारी शक्ति को वंदन! हृदय से धन्यवाद! 🙏

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  15. बहुत सुंदर

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  16. बहुत सुंदर, सभ्य व स्पष्टता से लिखा गया लेख

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  17. बहुत अच्छी और सत्य उजागर किया है समाज का

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  18. बहुत ही अच्छा लिखा हैआपने,नारी शक्ति को प्रणाम -आपका बहुत बहुत धन्यवाद

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  19. बहुत सुंदर और सत्य कहा है आपने 🙏

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  20. जबरदस्त लेख ओर आपका प्रयास सराहनीय।पर अब हमारे समाज की सोच में जो परिवर्तन आ चुका है आपके बस की बात नही है उसे रोकना ।जो लोग इस सोच को बढ़ावा दे रहे हैं वह नहीं चाहते कि आप जैसे लोग कामयाब हो उनकी मंशा व्यापार आधारित है और वह चाहते हैं कि हमारा समाज का ढांचा ध्वस्त हो जाए हम उनके गुलाम बन कर ही जिये। जो वह कहे वही करें खुद हमारे पास ना कोई ज्ञान होगा ,हम सब भूल चुके हैं ।,भूलते जा रहे हैं और याद भी रखना नहीं चाह रहे हैं ।आप जिस गांव की बात करें वह गांव भी आज इस सामाजिक ढांचे को छोड़ चुके हैं पता नहीं लोगों की सोच क्यों इतना परिवर्तित हुई है वह अपने आप ही करी है हमने या कराने में षड्यंत्रकारी शक्तियां कामयाब हुई है कह नहीं सकते पर आप प्रयास में लगे रहिए। परंतु यह पक्का दावा है समाज का नाश होता ही जा रहा है पतन होता ही जा रहा है और आगे सतत बढ़ता ही जा रहा है पतन की और हमारा समाज।

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  21. बहुत ही बढ़िया भईया 👏👏🙏

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  22. बहुत सुन्दर

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  23. Bahut badhiya Virendra Ji
    Aaj ke samay me isi soch ki jarurat hai hum Bhartiyo ko.
    🙏🙏

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