दीपावली – सभ्यता का त्योहार

 




लेख - श्री आशीष कुमार गुप्ता (संस्थापक - जीविका आश्रम, जबलपुर)

ढेरों जानकारियाँ होने के बाद भी इस बात का पूरा अहसास गाँव में रहकर ही हो पाया, कि कैसे दीपावली जैसे ढेरों त्योहार किसी धर्म, पन्थ, आदि के न होकर हमारी ‘सभ्यता’ के त्योहार रहे हैं।

हमारी सभ्यता में ‘घर’ का मतलब ही ‘मिट्टी, लकड़ी, आदि से बना घर’ होता है, जो न केवल पूर्णतः प्राकृतिक सामग्री से बना होता है, बल्कि उसकी पूरी डिज़ाइन में कुछ ऐसे सिद्धान्तों का पालन होता है, जो उसमें रहने वालों को ‘आरोग्यप्रद’ रखने के साथ-साथ उनके ‘आर्थिक हितों की रक्षा’ भी करते हैं और साथ ही साथ उन्हें निरन्तर और भी अधिक ‘प्रकृति-प्रेमी’, ‘सामाजिक’ और ‘आध्यात्मिक’ होने की दिशा में अग्रसर करता है।

दशहरे तक बरसात के पूरी तरह खत्म होने के बाद मिट्टी के घर एक बार पूरी तरह से साफ-सफाई और थोड़ी-बहुत मरम्मत मांगते हैं। खपरैल / कबेलू की छतों से पानी गिरने के कारण जमीन की मिट्टी से सने पानी के छीटें जहाँ – तहाँ दीवार को थोड़ा – बहुत मटमैला कर देते हैं। तेज हवा के साथ होने वाली बारिश भी मिट्टी की दीवारों की बाहरी सतह को थोड़ा-बहुत नुकसान पहुँचाती है।

बरसात के दिनों में तरह – तरह के कीड़े – मकोड़े भी, बरसात से बचने के लिए घर के अंदर अपने डेरे जमा लेते हैं। भारतीय मानस के हमारे लोग इस बात को समझते हैं और उन दिनों घरों में आ धमकने वाले इन कीड़ों – मकोड़ों की मजबूरी समझते हुए उन्हें भगाते नहीं हैं। हाँ, इनसे अपने आपको बचाये रखने के ढेरों तरीके वे जानते हैं, बल्कि कभी – कभार उनके काट लेने पर, उनसे सम्पर्क में आ जाने पर त्वचा आदि पर होने वाले reaction आदि के ढेरों उपचार भी जानते हैं। इसीलिए, वे उनके साथ एक सह – अस्तित्व की भावना से रह सकते हैं, जबकि शहरी घरों में तो चींटी, मच्छर, कॉकरोच आदि को मारने के ही ढेरों यन्त्र, केमिकल और न जाने क्या – क्या चीजें आ गई हैं। इसीलिए, यहाँ सह – अस्तित्व की बात तो बढ़ – चढ़ के हो सकती है, पर सह – अस्तित्व से जीना इनके लिए कठिन है। इस कथनी और करनी वाले भेद के प्रति हमारा ध्यान जाना चाहिए।

इन सभी कारणों से इन घरों की ठीक – ठाक सफाई और मरम्मत की जाती है। इसके लिए जरूरी मिट्टी, भूसा और अन्य समान गाँव ही में मिल जाता है। मरम्मत के लिए एक विशेष कौशल की जरुरत होती है, जो कि हर घर में सहज ही उपलब्ध होता है। सारा काम महिलाओं, पुरुषों और बच्चों में बँट जाता है। इस पूरे अवसर पर बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है। हमारे बचपन में, हर घर के बच्चे मरम्मत में लगने वाली मिट्टी से बकायदा अपने खेलने के लिए स्वयं का एक छोटा सा घर बनाया करते थे। पास – पड़ोस के दोस्त, सहेली और यहाँ तक कि बड़े लोग भी मिलकर घर बनाने में मदद करते थे। यही, उनका घर बनाने का अपने ढङ्ग का प्रशिक्षण हुआ करता था। तब, शायद हमारा शिक्षा – तन्त्र भी इस तरह की पढ़ाइयों का महत्त्व समझता था, इसीलिए उन दिनों दीवाली की छुट्टी पूरे एक माह के आसपास की हुआ करती थी। आजकल पढ़ाई के साथ खेल को जोड़ने की तो बात चलती है, लेकिन कभी हमने इन चीजों को सामान्य व्यवहार के स्तर तक ला दिया था। आजकल, होने वाली चार-पाँच दिनों की छुट्टियों में बच्चों का होम – वर्क ही इतना होता है, कि अपने आसपास हो रही थोड़ी – बहुत चीजों को भी ‘देख’ नहीं पाते हैं।

आजकल बच्चों की स्थिति बग्घियों में लगे घोड़ों जैसी हो गई है, जिनकी आँखों के दोनों ओर एक पर्दा सा लगा दिया जाता है, ताकि वे सामने के अलावा किसी और चीज को देख ही नहीं पाए। नहीं तो, कभी लोग, बकौल श्री रवीन्द्र शर्मा गुरुजी, ‘कुछ’ देखने नहीं, ‘कुछ भी’ देखने के लिए निकला करते थे।

इसके अलावा, घर की रसोई और भण्डारगृह में रखे बहुत सारे सामान — अचार, पापड़, बड़ी, मसाले, आदि –बरसात में नमी पकड़ लेते हैं। इसीलिए, दीपावली के समय की खरी-खरी धूप में इन सभी को सूखाकर इनकी नमी दूर कर दी जाती है। उसी समय रसोई की पूरी सफाई करके दीवारों की नमी, फफूँद आदि को भी दूर कर दिया जाता है। कार्तिक मास से ही शुरु होने वाली ठण्ड से बचने के लिए सोने, ओढ़ने – बिछाने, पहनने के गर्म कपड़ों को निकालकर उन्हें भी इस मौसम की एक कड़ी धूप दिखा दी जाती है और उन बड़ी पेटियों, आदि की सफाई भी कर दी जाती है।

पूरी साफ – सफाई के बाद घर को और भी सुंदर बनाने के लिए उस पर रङ्ग-रोगन भी किया जाता है। रङ्ग-रोगन भी आज की तरह बड़े – बड़े कारखानों में केमिकलों से बना नहीं, बल्कि पूरी तरह से प्राकृतिक ‘चूने’ से किया जाता था। चूना, न केवल गर्मियों में दीवारों को ठण्डा रखता है, बल्कि एक बहुत ही जाना – माना निस्संक्रामक (disinfectant) भी है। बरसात के साथ हो आए बहुत तरह के कीड़ों के साथ – साथ ऋतुओं की सन्धि पर होने वाले कई तरह के कीड़ों को यह दूर करता है (मारता नहीं है) और यह दूर करना भी बरसात के बाद होता है, जब उन कीड़ों – मकोड़ों के लिए घर के बाहर उपयुक्त जगह उपलब्ध हो जाती है। इसी तरह, दीवाली के अवसर पर जलाए जाने वाले पटाखे भी एक साथ बड़े पैमाने पर disinfection का काम ही करते हैं। हालाँकि, तब पटाखे अधिकतरकर फ़ॉस्फोरस से बने होते थे, न कि आजकल की तरह सल्फर से।

इस पूरे प्रकरण की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है, कि यह सब साफ – सफाई, रङ्ग – रोगन, अलग – अलग घरों में अलग – अलग समय न होकर 15 – 20 दिनों की समय – सीमा में लगभग एक साथ किया जाता है, जो कि एक तरह का mass – disinfection होता है। इस पूरे अभियान को दीवाली के साथ जोड़कर, दशहरे से दीपावली तक एक निश्चित समय सीमा में सीमित करके एक जन – अभियान जैसा बना दिया जाता है। शहरों में तो आजकल ऐसा कुछ नजर नहीं आता है, पर गाँवों में अभी भी ऐसा ही माहौल होता है।
इस तरह से दीवाली कभी एक सभ्यतागत उत्सव था जो कि हमारी प्रकृति, हमारे रहन – सहन के तरीकों, चीजों को देखने – करने के हमारे दर्शन, हमारी दृष्टि पर आधारित था। आज तो खैर, केवल इस त्योहार पर नहीं, बल्कि हमारी पूरी जीवनशैली पर ही बाजार का कब्जा है। जो, स्वयं अपने हिसाब से हमको और हमारी जीवनशैली को निर्धारित करने लग गया है। इसीलिए श्री रवीन्द्र शर्मा जी कहा करते थे कि ‘छोटी टेक्नोलॉजी को समाज व्यवस्थित करता है, जबकि बड़ी टेक्नोलॉजी, समाज को नियन्त्रित करती है’। नहीं तो, भला शहरों में, लोहे – सीमेन्ट से बने तथाकथित ‘पक्के’ घरों में रहने वाले, (बिना भण्डारण के) थोड़ी – थोड़ी मात्रा में रसोई का सामान खरीदकर बिचौलिये – कारखानों पर निर्भर रहने वाले और उन थोड़े सामानों को भी विभिन्न तरह के एयर – टाइट डिब्बों में रखने वाले, लोगों के लिए इस तरह के त्योहारों का महत्त्व ही क्या है?

- आशीष कुमार गुप्ता

साभार लेख स्त्रोत : https://saarthaksamvaad.in/diwali-sabhyata-ka-tyohar/


Author: Ashish Kumar Gupta

Ashish Kumar Gupta has setup Jeevika Ashram and Studies Center at Indrana village near Jabalpur. Formerly a rural management executive, having studied from IRMA Anand, Ashish Kumar Gupta spent years with Shri Ravindra Sharma ji fondly known as Guruji at Adilabad and imbibed his narratives on topics mostly related to how beautifully the rural societies function, how do they think, what are their guiding principles. Among many social causes that Ashish Kumar Gupta is associated with, his chief focus is on transcribing and publishing Guruji's works and inspired by the same, he also focuses on reorienting the Indian society to correct their self image and start to think and function on its own principles and methodologies.

Comments

Popular posts from this blog

प्यास लगी थी गजब की…मगर पानी मे जहर था…

त्रिफला खाकर हाथी को बगल में दबा कर 4 कोस ले जाएँ! जानिए 12 वर्ष तक लगातार असली त्रिफला खाने के लाभ!

डेटॉक्स के लिए गुरु-चेला और अकेला को कैसे प्रयोग करें (संस्करण -1.1)/ How to use Guru Chela and Akela for Detox - (Version - 1.1) - with English Translation